बालकृष्ण लीला||Kirshna Laila

 बालकृष्ण लीला

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एक बार भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बाल स्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई। भाद्रपद शुक्ल पक्ष द्वादशी के दिन भगवान शंकर अलख जगाते हुए गोकुल में आए। शिव द्वार पर आकर खड़े हो गए। तभी नंद के भवन से एक दासी शिव के पास आई और कहने लगी कि- "यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है, इसे स्वीकार कर लें और लाला को आशीर्वाद दे दें।" शिव बोले- "मैं भिक्षा नहीं लूँगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है, मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है।"

बालकृष्ण लीला


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 दासी ने यह समाचार यशोदाजी के पास पहुँचा दिया। भगवान शिव ने आवाज़ लगाई- "अरी मईया! दिखा दे मुख लाल का,तेरे पलने में, पालनहार दिखा दे मुख लाल का।" माँ यशोदा ने खिड़की से बाहर देखकर कह दिया कि "लाला को बाहर नहीं लाऊँगी। तुम्हारे गले में सर्प है, जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा।" शिव बोले- "माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है। वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है। यशोदाजी बोलीं- "कैसी बातें कर रहे हैं आप? मेरा लाला तो नन्हा-सा है, आप हठ न करें।" शिव ने कहा- "तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहाँ से नहीं हटूँगा। मैं यहीं समाधि लगा लूँगा।" बाल कन्हैया ने भी यह जान लिया कि शिवजी पधारे हैं और माता उन्हें वहाँ ले नहीं ले जा रही हैं और शिव दर्शन न मिलने पर समाधि लगा लेंगे। बाल कन्हैया भली प्रकार जानते थे कि भोले बाबा की समाधि लग गई तो हज़ारों वर्ष के बाद ही खुलेगी तो उन्होंने ज़ोर से रोना शुरू कर दिया।

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 जब कन्हैया किसी भी प्रकार चुप नहीं हुए तो यशोदाजी को लगा कि सचमुच वे योगी परमतपस्वी हैं। यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आईं। शिव ने सोचा कि अब तो कन्हैया मेरे पास आएंगे ही। उन्होंने बालकृष्ण के दर्शन करके प्रणाम किया, किन्तु इतने से ही उनकी तृप्ति नहीं हुई। वे बालकृष्ण को अपनी गोद में लेना चाहते थे। शिव यशोदाजी से बोले कि- "तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसके हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूँगा। यशोदा ने बालकृष्ण को शिव की गोद में रख दिया। शिव की गोद में आते ही बालकृष्ण खिलखिला कर हँस पड़े। वे योगी के रूप में आये हुए शिव के कभी गाल नोंचते तो कभी उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ी के केशों को खींचते।🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹

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